Thursday, April 7, 2016

शुकासारिखे पूर्ण वैराग्य ज्याचे।
वशिष्ठापरि ज्ञान योगेश्र्वराचे।
कवि वाल्मिकासारिखा मान्य ऐसा।
नमस्कार माझा सद्गुरू रामदासा।।

॥श्रीराम॥ आतां सद्गुरु वर्णवेना | जेथें माया स्पर्शों
सकेना | तें स्वरूप मज अज्ञाना | काये कळें ||||
नकळे नकळे नेति नेति | ऐसें बोलतसे श्रुती |
तेथें मज मूर्खाची मती | पवाडेल कोठें ||||
मज नकळे हा विचारु | दुऱ्हूनि माझा नम-
स्कारु | गुरुदेवा पैलपारु | पाववीं मज ||||
होती स्तवनाची दुराशा | तुटला मायेचा भर्वसा |
आतां असाल तैसे असा | सद्‍गुरु  स्वामी  ||||
मायेच्या बळें करीन स्तवन | ऐसें वांछित होतें
मन | माया जाली लज्यायमान | काय करूं ||||
नातुडे मुख्य परमात्मा | म्हणौनी करावी लागे प्रतिमा |
तैसा  मायायोगें  महिमा  |  वर्णीन  सद्‍गुरूचा  ||||
आपल्या भावासारिखा मनीं | देव आठवावा ध्यानीं |
तैसा  सद्‍गुरु  हा  स्तवनीं  |  स्तऊं  आतां  ||||
जय जयाजि  सद्‍गुरुराजा | विश्वंभरा  विश्व-
बीजा | परमपुरुषा मोक्षध्वजा | दीनबंधु ||||
तुझीयेन अभयंकरें | अनावर माया हे वोसरे |
जैसें  सूर्यप्रकाशें  अंधारें  | पळोन जाये ||||
आदित्यें अंधकार निवारे | परंतु मागुतें ब्रह्मांड भरे |
नीसी  जालियां  नंतरें  |  पुन्हा  काळोखें  ||१०||
तैसा नव्हे स्वामीरावो | करी जन्ममृत्य वाव |
समूळ  अज्ञानाचा  ठाव | पुसून  टाकी ||११||
सुवर्णांचें  लोहो कांहीं | सर्वथा  होणार  नाहीं |
तैसा गुरुदास संदेहीं | पडोंचिं नेणे सर्वथा ||१२||
कां सरिता गंगेसी मिळाली | मिळणी होतां गंगा जाली |
मग जरी  वेगळी केली | तरी होणार नाहीं सर्वथा ||१३||
परी ते सरिता मिळणीमागें | वाहाळ मानिजेत जगें |
तैसा  नव्हे  शिष्य  वेगें  |  स्वामीच  होये  ||१४||
परीस आपणा ऐसें करीना | सुवर्णें लोहो पालटेना |
उपदेश करी बहुत जना | अंकित सद्‍गुरूचा ||१५||
शिष्यास गुरुत्व प्राप्त होये | सुवर्णें सुवर्ण करितां नये |
म्हणौनी  उपमा  न साहे | सद्‍गुरूसी परिसाची ||१६||
उपमे  द्यावा  सागर  |  तरी  तो  अत्यंतचि  क्षार |
अथवा म्हणों क्षीरसागर | तरी तो नासेल कल्पांतीं ||१७||
उपमे द्यावा जरी मेरु | तरी तो जड पाषाण कठोरु |
तैसा नव्हे  कीं सद्‍गुरु | कोमळ  दिनाचा  ||१८||
उपमे म्हणों गगन | तरी गगनापरीस तें निर्गुण |
या कारणें दृष्टांत हीण | सद्‍गुरूस गगनाचा ||१९||
धीरपणे उपमूं जगती | तरी हेहि खचेल कल्पांतीं |
म्हणौन धीरत्वास  दृष्टांतीं | हीन  वसुंधरा  ||२०||
आतां उपमावा गभस्ती | तरी गभस्तीचा प्रकाश किती |
शास्त्रें  मर्यादा  बोलती  |  सद्‍गुरु  अमर्याद  ||२१||
म्हणौनि उपमे उणा दिनकर | सद्गुरुज्ञानप्रकाश थोर |
आतां  उपमावा  फणीवर | तरी तोहि  भारवाही ||२२||
आतां उपमा द्यावें जळ | तरी तें  काळांतरीं आटेल
सकळ | सद्‍गुरुरूप तें निश्चळ | जाणार नाहीं ||२३||
सद्‍गुरूसी उपमावें अमृत  |  तरी  अमर धरिती
मृत्यपंथ | सद्‍गुरुकृपा यथार्थ | अमर करी ||२४||
सद्‍गुरूसी म्हणावें कल्पतरु | तरी हा कल्पनेतीत
विचारु | कल्पवृक्षाचा अंगिकारु | कोण करी ||२५||
चिंता मात्र नाहीं मनीं  |  कोण पुसे चिंतामणी |
कामधेनूचीं दुभणीं | निःकामासी न लगती ||२६||
सद्गुरु म्हणों लक्ष्मीवंत | तरी ते लक्ष्मी नाशिवंत |
ज्याचे  द्वारीं  असे  तिष्टत  |  मोक्षलक्ष्मी ||२७||
स्वर्गलोक इंद्र संपती | हे काळांतरीं विटंबती |
सद्‍गुरुकृपेची प्राप्ती | काळांतरीं  चळेना ||२८||
हरीहर ब्रह्मादिक | नाश पावती सकळिक |
सर्वदा अविनाश येक  |  सद्‍गुरुपद ||२९||
तयासी  उपमा  काय  द्यावी  |  नाशिवंत  सृष्टी
आघवी | पंचभूतिक उठाठेवी | न चलें तेथें ||३०||
म्हणौनी सद्गुरु वर्णवेना | हे गे हेचि माझी वर्णना |
अंतरस्थितीचिया  खुणा  |  अंतर्निष्ठ जाणती ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सद्गुरुस्तवननाम समास चवथा || .||

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