शुकासारिखे पूर्ण वैराग्य ज्याचे।
वशिष्ठापरि ज्ञान योगेश्र्वराचे।
कवि वाल्मिकासारिखा मान्य ऐसा।
नमस्कार माझा सद्गुरू रामदासा।।
वशिष्ठापरि ज्ञान योगेश्र्वराचे।
कवि वाल्मिकासारिखा मान्य ऐसा।
नमस्कार माझा सद्गुरू रामदासा।।
॥श्रीराम॥ आतां सद्गुरु वर्णवेना | जेथें माया स्पर्शों
सकेना | तें
स्वरूप मज अज्ञाना | काये कळें ||१||
नकळे नकळे नेति नेति | ऐसें बोलतसे श्रुती |
तेथें मज मूर्खाची मती | पवाडेल कोठें ||२||
मज नकळे हा विचारु | दुऱ्हूनि माझा नम-
स्कारु | गुरुदेवा
पैलपारु | पाववीं मज ||३||
होती स्तवनाची दुराशा | तुटला मायेचा भर्वसा |
आतां असाल तैसे असा | सद्गुरु स्वामी ||४||
मायेच्या बळें करीन स्तवन | ऐसें वांछित होतें
मन | माया
जाली लज्यायमान | काय करूं ||५||
नातुडे मुख्य परमात्मा | म्हणौनी करावी लागे प्रतिमा |
तैसा मायायोगें महिमा | वर्णीन सद्गुरूचा ||६||
आपल्या भावासारिखा मनीं | देव आठवावा ध्यानीं |
तैसा सद्गुरु हा स्तवनीं | स्तऊं आतां ||७||
जय जयाजि सद्गुरुराजा
| विश्वंभरा विश्व-
बीजा | परमपुरुषा मोक्षध्वजा | दीनबंधु ||८||
तुझीयेन अभयंकरें | अनावर माया हे वोसरे |
जैसें सूर्यप्रकाशें अंधारें | पळोन जाये ||९||
आदित्यें अंधकार निवारे | परंतु मागुतें ब्रह्मांड भरे |
नीसी जालियां नंतरें | पुन्हा काळोखें ||१०||
तैसा नव्हे स्वामीरावो | करी जन्ममृत्य वाव |
समूळ अज्ञानाचा ठाव | पुसून टाकी ||११||
सुवर्णांचें लोहो
कांहीं | सर्वथा होणार नाहीं |
तैसा गुरुदास संदेहीं | पडोंचिं नेणे सर्वथा ||१२||
कां सरिता गंगेसी मिळाली | मिळणी होतां गंगा जाली |
मग जरी वेगळी केली | तरी होणार नाहीं सर्वथा ||१३||
परी ते सरिता मिळणीमागें | वाहाळ मानिजेत जगें |
तैसा नव्हे शिष्य वेगें | स्वामीच होये ||१४||
परीस आपणा ऐसें करीना | सुवर्णें लोहो पालटेना |
उपदेश करी बहुत जना | अंकित सद्गुरूचा ||१५||
शिष्यास गुरुत्व प्राप्त होये | सुवर्णें सुवर्ण करितां नये |
म्हणौनी उपमा न साहे | सद्गुरूसी परिसाची ||१६||
उपमे द्यावा सागर | तरी तो अत्यंतचि
क्षार |
अथवा म्हणों क्षीरसागर | तरी तो नासेल कल्पांतीं ||१७||
उपमे द्यावा जरी मेरु | तरी तो जड पाषाण कठोरु |
तैसा नव्हे कीं सद्गुरु
| कोमळ दिनाचा ||१८||
उपमे म्हणों गगन | तरी
गगनापरीस तें निर्गुण |
या कारणें दृष्टांत हीण | सद्गुरूस गगनाचा ||१९||
धीरपणे उपमूं जगती | तरी हेहि खचेल कल्पांतीं |
म्हणौन धीरत्वास दृष्टांतीं | हीन वसुंधरा ||२०||
आतां उपमावा गभस्ती | तरी गभस्तीचा प्रकाश किती |
शास्त्रें मर्यादा बोलती | सद्गुरु
अमर्याद ||२१||
म्हणौनि उपमे उणा दिनकर | सद्गुरुज्ञानप्रकाश थोर |
आतां उपमावा फणीवर | तरी तोहि भारवाही ||२२||
आतां उपमा द्यावें जळ | तरी तें काळांतरीं आटेल
सकळ | सद्गुरुरूप
तें निश्चळ | जाणार नाहीं ||२३||
सद्गुरूसी उपमावें अमृत
| तरी अमर धरिती
मृत्यपंथ | सद्गुरुकृपा
यथार्थ | अमर करी ||२४||
सद्गुरूसी म्हणावें कल्पतरु | तरी हा कल्पनेतीत
विचारु | कल्पवृक्षाचा
अंगिकारु | कोण करी ||२५||
चिंता मात्र नाहीं मनीं
| कोण पुसे चिंतामणी |
कामधेनूचीं दुभणीं | निःकामासी न लगती ||२६||
सद्गुरु म्हणों लक्ष्मीवंत | तरी ते लक्ष्मी नाशिवंत |
ज्याचे द्वारीं असे तिष्टत | मोक्षलक्ष्मी
||२७||
स्वर्गलोक इंद्र संपती | हे काळांतरीं विटंबती |
सद्गुरुकृपेची प्राप्ती | काळांतरीं चळेना ||२८||
हरीहर ब्रह्मादिक | नाश पावती सकळिक |
सर्वदा अविनाश येक | सद्गुरुपद
||२९||
तयासी उपमा काय द्यावी | नाशिवंत
सृष्टी
आघवी | पंचभूतिक उठाठेवी | न चलें तेथें ||३०||
म्हणौनी सद्गुरु वर्णवेना | हे गे हेचि माझी वर्णना |
अंतरस्थितीचिया खुणा
| अंतर्निष्ठ जाणती ||३१||
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे
सद्गुरुस्तवननाम समास चवथा || १.४ ||
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